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Thursday, November 11, 2010

भावनाएँ ।


भावनाएँ
दिनांक- 11-11-2010
सुन्दर या सुन्दरता शब्द सामान्य रुप से व्यक्ति के जिवन के हर पहलू से है। किसी भी मनुष्य का रुप रंग सुन्दर हो सकता लेकिन यह जरुरी नही की उतना ही सुन्दर उसका मन-मसतिष्क हो यह बहुत कठिनाई से प्राप्त होता है। किसी भी अच्छी लगने वाली या तृप्ति प्रदान करने वाली वस्तु को हम सुन्दर शब्द से व्यक्त करते है, सुन्दर,सुन्दरता हमारे मनोभावना के दो पक्ष हैं। लेकिन क्या वास्तव में यह कहना इतना सरल है कि क्या सुन्दर है? तथा उसमें सुन्दरता कहाँ है? सुन्दरता का मूल उद्देश्य हमारे भाव-जगत को सुख और तृप्ति प्रदान करना है, सुन्दरता जीवन की पूर्णता में कल्याण तथा सत्य का उदघाटन करने वाला है और इसी सत्य और शिव का प्रत्यक्ष दर्शन ही सुन्दरता की अनुभूति है। सुन्दरता के प्रति एक भूख भोजन,घर,साज-सज्जा,कपड़े,अलंकार, अर्थात जिवन के प्रत्येक क्षेत्र मे हैं इसकी तृप्ति हमें किसी देश की संस्कृति मे सुन्दरता के रुप मे वहाँ की कला से प्रात्त होती है। प्रकृति के हर क्षेत्र मे सुन्दरता बिखरा पड़ा है। चुम्बकीय आकर्षण की तरह मनुष्य में उसके प्रती आकर्षित होना उसका सभाव है। सही मायने मे सौन्दर्य पर किसी कलाकार अथवा दार्शनिक का ही अधिकार नही है। सौन्दर्य मनुष्य के अन्दर सफूर्ति, गहन वेदना,कल्पना के लिए खुला आकाश और ह्रदय मे एक शान्ति का संचार करता हैं। सौन्दर्य  कलाकार के सृजन एवं दर्शक की अनुभूति से जुड़ा है। विषय और दृष्टिकोण का अन्तर होने पर भी सौन्दर्य बोध दार्शनिक, कलाकार और जन सामान्य के लिए एक समान महत्व रखता है।
सौन्दर्य एक मनोभावना है,जिसे हम अपना दैनिक जिवन मे अपनी इन्दियों द्वरा देख कर ,सुनकर, या छुकर अनुभव करते हैं। आनन्द, सुख ,संतुष्टि एक भौतिक अनुभूति है,परन्तु एक विवेकशिल व्यक्ति इन मानव इन्द्रियों द्वारा प्राप्त सुख और आनन्द को अवास्तविक मानता हैं। किसी भी वस्तु को हम खा कर, सूंघ कर,छूकर आनन्दित होते हैं और उसका वर्णन करने लगते हैं, परन्तु उसके कारण पर किसी का ध्यान नही जाता हैं। एक माँ अपने बच्चे को बहुत जतन से पालती है, उसके लिए अनेको कष्ट उठाती है, यह सब इसलिए करती है,क्योकि बह उससे प्रेम करती है। एक किसान खेत की निड़ाई-गुड़ाई करता है, खेत मे हल हला चलाता है और अपने शरिर को अनेको कष्ट देता है क्योकि बह उस खेत से प्रेम करता है। बह अपने कष्ट से ज्यदा उससे  उत्पन्न अन्न को महत्व देता है। वस्तु के प्रति प्रेम और शरीर धारी के प्रेम दोनो मे अन्तर होता है। एक स्त्री अपने बच्चे से प्रेम करती है बही स्त्री अपने पती से प्रेम करती है और बही स्त्री अपने नाती पोतों से प्रेम करती है,एक पुत्र अपने पिता से प्रेम करता है। इन सभी से प्रेम की एक निश्चित धरातल और भावनाओं का स्तर अलग-अलग होता है। यह अलग बात है कि तरीका अलग-अलग हो सकता है, लेकिन प्रेम की मूल भूत वास्तविक अवस्था एक ही रहती है। मनुष्य अपने रुचि के अनुसार वस्तु से या शरीर धारी से प्रेम करता है। मनुष्य प्रेम और आनंन्द की अनुभूति अपने जिभ,नाक,कान अथवा आँख से करता है। भोजन के स्वाद मे आनन्द लेते हुए उसके बाद होने वाले परिणाम को न सोच कर बह ज्यदा खा लेता है, इसी तरह सिगरेट पीने वाला व्यक्ति उससे बाद मे होने वाली लुकसान को न देखते हुए भी पीता रहता है, क्योकि इसके पीने से उसे आनन्द मिलता है। ठीक इसी तरह किसी संगीत को सुन या सिनेमा को देख मनुष्य उसकी ओर खिंचा चला जाता है। और उसको देखने य़ा सुनने के लिए उसकी आँख कान प्यासी बन जाती है, और उसका मन अधिर हो उठता है, और मन मृग-तृष्णा की तरह इधर से उधर भागता फिरता है। संसार मे बहुत सी वस्तुएँ ऐसी भी हैं, जिसे देख कर,सुन कर, पा लेने के लिए मनुष्य का मन आकर्षित नही होता है। लेकिन कुछ एक प्राकृतिक  वस्तुएँ मनुष्य को बरबस ही अपनी ओर आकर्षित कर लेती है। किसी फूल की सुगंन्ध , सूर्योदय, चाँदनी, किसी बच्चे का रुप या उसकी शरारतों से आकर्षित हो प्यार से उसे हम गोद मे उठा लेते हैं। हमारी इन्द्रिय को जो वस्तु,गंध,देखना या ध्वनि अच्छी लगती है उसे बार-बार प्राप्त कर लेने,सुनने,खाने,पी लेने या छूलेने का मन करता है। फूल की सुगंध हम बार-बार लेना चाहते हैं बहीं नाली की दुर्गंध से हम अपने नाक पर कपड़ा रख लेते हैं। कोयल की कूक सुनकर मन आनन्दित होता है,लेकिन एक कुत्ते की भौं-भौं और गधे का रेंगना हमे अच्छा नही लगता है। समाज मे अच्छी और बुरी दोनो के होने से ही हमे अच्छी बात का अनुभव होता है। यह मनुष्य मे बोध तत्व के होने का प्रमाण है। इन सब का कारण भाव ही है कि प्रकृति में दिखाई देने वाली सुन्दर-असुन्दर मे से हमारा मन सुन्दर को ग्रहण करना चाहता है। यह प्राकृतिक सौन्दर्य ईश्वर द्वरा की देन है। मनुष्य का प्रकृति से घनिष्ट संम्बन्ध है। मनुष्य का सौन्दर्य भावना बोध इस प्रकृति का ही देन है। इस प्रकृति के समुद्र,नदी,झरने,पहाड़,फूल इत्यादी मनुष्य को जन्म से ही सुख देते हैं। उनके स्पर्श,गती,रुप,रंग हमे अच्छे लगते हैं। प्रकृति खुद अपने आप मे आनन्द नही है अपितु मनुष्य के मन,मसतिष्क एवं आँखों मे होता है। एक फूल है दूसरी उसकी गंन्ध फूल तो भौतिक है, उसकी गंध अमर ब्रह्म है।                   

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