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Wednesday, November 10, 2010

मानव समाज और संस्कृति का विकास। (भाग- 1 )


मानव समाज और संस्कृति का विकास। (भाग- 1 )

संक्षिप्त इतिहास
भाग- 1

                        
दिनांक – 4.11.2010
भारतीय समाज की संस्कृति विश्व की सबसे पुरानी संस्कृति है। मानव संस्कृति का प्रारंभ करोड़ो बर्ष पहले हिमालय के गोद मे शुरु हुआ। स्वर्ग का क्षेत्र हिमालय पर्वत जाहाँ मानव की उत्पत्ती हुई । जैसा की हमारे वेद पुराणों मे लिखा है, ईश्वर या सर्वशक्तिमान ने सर्वप्रथम एक पुरुष, स्त्री को जन्म दिया। ( यह जोड़ा शंकर और पार्वती) इस जोड़े से दो पुत्र उत्पन्न हुए एक सूर और दुसरा असूर कहलाये। (वैज्ञानिको का मानना है कि यह जोड़ा हमारी गृह की तरह कोई दुसरे गृह के निवासी लाकर छोड़ गये। जैसे कि आज के वैज्ञानिको द्वारा चाँद पर मानव वस्ती वसाने की तैयारी चल रही है।)  यह सूर,असूर दोनो भाई के वंश धिरे-धिरे बढ़ते रहे। सूर सभाव से बड़े ही सौम्य, मन्नशिल, प्रतिभाशालि और उनका आहार सात्विक था। दूसरा पुत्र असूर का स्भाव क्रोधी, उदंन्ड एवं उनका खान-पान मांस, तामसिक भोजन प्रिय थे। कुछ समय पश्चात दोनो भाईयों मे लड़ाई होने लगी। यह लड़ाईयाँ युद्ध मे परिवर्ती होता गया। एक समय ऐसा आया असूर लोग स्वर्ग मे अत्यन्त उत्याचार करने लगे उनसे स्वर्ग की संस्कृति को खतरा पैदा हो गया तब उनके पर दादा ने देव आदि देव (शिव जी) दोनो भाईयो को अलग करने के लिये यह आदेश दिया कि बड़े भाई सूर और उनकी संन्ताने यही स्वर्ग मे रहेगें और असूर एवं उनकी संन्ताने वलूच्य देश (आज कल इसका नाम बलूचिस्तान है।) मे जा के रहे। इस प्रकार दोनो दूर रहेंगे तो उनके मध्य युद्ध होने का खतरा नही होगा। (चूंकि शिव दोनो ही भाईयों के पूज्यनिय थे। इस लिए आज भी मक्का मदिना मे शिव लिंग का होना बताया जाता है।) 
याहाँ इस आदि काल का एक युद्ध संक्षेप मे इस प्रकार है। इस काल के विख्यात असूर महिषासूर ने स्वर्ग मे बहुत उत्पात मचा रखा था । इस असूर को युद्ध मे मारना अकेले किसी देवता के वश मे नही था। सभी देवताओ ने मिल कर इसका उपाय सोचा कि हम सारे देवता मिल कर उस असूर का वध करें। परन्तु यह एक निकृष्ट कार्य होगा। और यह युद्ध के नियम के विपरित भी यह विचार कर सभी देवता एकत्रित हो इस समस्या का हल ढूँढने के लिए देव आदि देव शंकर के पास गये। सभी देव मिल कर शिव से बोले कि आप ही अकेले ही महिषासूर (महिष का अर्थ भैंस है, महिषासूर चूंकि भैसे कि सवारी करता था इसलिए उसका नाम महिषासूर पड़ा।) का संहार कर सकते हैं। शिव वोले- मै आप के समाज का प्रथम पुरुष सभी मेरे लिए समान हैं। महिषासूर से युद्ध करते समय क्रोध वश मैने आपने पशुपति अस्त्र का (आज वर्तमान समय के दो परमाणु बम पुरी दुनिया को समाप्त कर सकता है, शिव का एक पशुपति अस्त्र पुरी दुनियाँ को नष्ट कर सकता था। अपने वल से उसे फिर उसका प्रयोग कर सकते थे।) प्रयोग कर दिया तो संसार की सम्पुर्ण  सृष्टी का विनाश हो जायेगा इसलिए यह युद्ध मै नही कर सकता, कोई दूसरा ऊपाय सोचों। सभी देवता ने इस समस्या को हल करने का भार शिव पर ही छोड़ दिया। तब शिव ने यह युक्ति निकाला कि हम सभी का तेज, प्रताप और अस्त्र से लैस एक प्रति मूर्ती बनाकर ही इस असूर का संहार किया जा सकता है। युद्ध करने के लिए किसी को विना कारण ललकारा नही जाता है। इसलिए इस प्रति मूर्ती (दुर्गा) को नारी का रुप दिया गया। क्योकि शुरु से ही नारी रुप पुरुष के लिए आर्कषण का केन्द्र रहा यह पुरुष का प्रारभ्य प्रकृति की ही देन है। दुर्गा श्रगांर करके हिमालय के गुफा कंद्राओ के पास जाकर बैठ गई। जहाँ महीषासूर दुर्गा के रुप यौवन पर मुग्ध हो कर उसकी ओर आक्रर्षित हो दुर्गा के पास गया और फिर दोनो मे घमासान युद्ध शुरु हुआ। युद्ध करते-करते सात दिन गुजर गये। भुखी-प्यासी दुर्गा अपना होश-हवास खो बैठी शरिर काली पड़ गई।  ( इसीलिए दुर्गा का एक रुप काली एवं दूसरा नाम श्यामा है।) और रोद्र रुप मे रण चड़ी बन नरो के सर काट कर खून से अपना प्यास बुझाने लगी दुर्गा का यह उन्मादि रुप देख सब देव घबारा कर फिर से शंकर के पास पहुचें और उनसे देवी को रोकने के लिए प्रर्थना करने लगे। तब शिव जी युद्ध क्षेत्र के भूमि पर लेट गये दुर्गा लड़ते-लड़ते अचानक लाश समझ कर अपना एक पैर शिव पर रख दिया अपराध वोध होने पर लज्जा के कारण उनके मुँह से जिभ बाहर निकल आया। (इसीलिए काली मुर्ती मे काली की जिभ बाहर निकली हुई है।) इस युद्ध मे महिषासूर मारा गया। एक मर्द कि तरह महिषासूर से लड़ने के कारण दुर्गा का एक नाम महीषासूरमर्दिनी पड़ा । ( दुर्गा की प्रतिमा मे दुर्गा के पैरो तले भैंस और असूर की मुर्ती को प्रदर्शित किया जाता है।) आज भी पहाड़  एवं अन्य समुदायों के लोग शक्ति के उपासक दुर्गा की पूजा करते हैं।
      
स्वर्ग मे सूरो के संन्तने धिरे-धिरे बढ़ते रहे उधर असूरों के । स्वर्ग में सूरो की संख्या अधिक  हो जाने पर वहाँ  नियम-कानून बनाया गया । देवताओं मे से जो भी स्वर्ग का नियम तोड़ता, उसे दंड स्वरुप नर्क मे जा कर निवास करने का आदेश दिया जाता । नर्क का क्षेत्र (नर के न रह पाने वाला जगह) का निर्धारण ऊपर से सुदूर निचे की ओर अर्थात जाहाँ (हिमालय) से गंगा निलकर समतल पर बहती हो। (जहाँ खाने पिने से लेकर जिन्दा रहने के लिए पल-पल संघर्ष करना पड़ता था। जैसे अंग्रेजी शासन काल का काला-पानी) पहाड़ के निवासी आज भी उपर या निचे को जा रहे हैं शब्दो का प्रयोग करते हैं। स्वर्ग से निकाले गये यह देव और देवी दंड स्वरुप नर्क के निवासी बने और धिरे-धिरे नर्क मे देव और देवीयों के संन्तानो का विकास होता गया। उसी काल मे स्वर्गं निवासीयो का दुसरा वर्ग किन्नरियों, नृत्क,नृर्तकिओ का था। उन्हे हिमालय का दूसरा क्षेत्र ( वर्तमान मे हिमांचल प्रदेश )  मे रहने को दिया गया । (बहुत बर्षो तक इस जगह का नाम किन्नरियो का निवास स्थान होने के कारण किन्नर देश के नाम से जाना जाता रहा। वर्तमान मे इसका नाम बदल कर हिमांचल प्रदेश के किनोर जिला हो गया है।) इस प्रकार स्वर्ग समाज को व्यवस्थित किया गया। धिरे-धिरे दंड पाये स्वर्ग के देव लोगों ने मनुष्यों के रहने के लिए नरक को भी स्वर्ग जैसा बना दिया। इस काल मे मानव अपने जप-तप के वल पर साधु-संन्त ऋषि मुनि बने उन्होने देव आज्ञा से वेद की रचना की इस समय का मानव अपने पूर्वजो देवो के साथ सिधे संम्पर्ख मे रहें।  धिरे-धिरे यह वंश बढ़ता रहा । इस प्रकार देव समाज का फैलाव हुआ। यह देव समाज हिमालय एवं पृथ्वी से कब समाप्त हुए यह कहाना कठिन है, परन्तु यह अनुमान लगाया जाता है, कि अवश्य ही किसी भंयकर प्राकृतिक प्रलय ने इस उन्नत समाज का विनाश कर दिया। प्रलय के खत्म होने के बाद बचे हुए मनुष्यों ने अपने समाज का फिर से निर्माण किया। इस तरह एक युग खत्म हो दूसरा पहला युग सत्य युग शुरु हुआ। हमारे पूर्वजों ने युगों को चार भागो मे बाँटा। पहला -सत्य युग । ( इस युग मे सब कुछ सत्य था। झूठ का नामोनिशान नही था। यह सत्य युग कहलाया।) दूसरा - त्रेता युग। (मानव जाती के विकास का तिसरा पड़ाव होने के कारण त्रेता कहलाया)। तिसरा – द्वापर युग । (युग के मध्य का समय होने के कारण द्वापर कहलाया।)  चौथा – कली युग। ( यह युग इन तिनो युगो से बड़ा एवं अंन्तिम युग है।) मानव जाती के तिसरे पड़ाव यदि आरम्भिक काल (आदि काल) को इस खण्ड मे जोड़े तो युग पाँच हो जोयेगें। पहला – आदि युग। दूसरा- सत्य युग। तिसरा- त्रेता युग। चौथा- द्वापर युग पाँचवा- कलि युग)  इन मे से कलि युग को छोड़ बाकी कालो की अवधि 1100 वर्षो का माना जाता है)। इस प्रकार मानव संस्कृति और समाज का एक युग के समाप्ती पर फिर से नवनिर्माण होता रहा। मानव अपने पूर्वजो से मिली संस्कृति और वस्तुओ को सहेजता चला गया। फिर पाषाण काल आया। इस युग का साक्ष्य भारत के काशमीर से तमिलनाडु के अनेको प्रदेशो से प्राप्त पत्थरो से बने औजारो से पता चला है कि यह पाषण काल के हैं इन औजारो की उम्र बीस लाख बर्ष से अधिक समय काल की मानी जाती है। उस समय के लोग चित्रकारी भी करते थे, इस चित्रकारी का प्रमाण मध्य प्रदेश के मिर्जापुर- भीमबेटक उत्तर प्रदेश- के आजमगढ़ तथा प्रतापगढ़ मे चित्रकारी के अनेको नमुने प्राप्त हुए हैं। पाषाण काल के भी चार भाग है। 1- अभिनूतन काल (लाइस्टोसीन) 2-पुरापाषाण काल (पोलियोलिथिक) 3- मध्यपाषाण काल (मेसोलिकथिक) 4- नवपाषाण काल (नियोलिथिक) । नवपाषाण काल (नियोलिथिक) का समय 9000 बर्ष ई0पू0 माना गया है। ई0पू0 का अर्थ है। (ईशामसी के जन्म से पहले। आज के कलैंन्डर की शुरुआत ईशामसी के जन्म से हुआ है।) नवपाषाण काल के अन्तिम चरण तक आते-आते मानव समाज ने धातु जैसे- ताँबा,कांसा को खोज निकाला था। और उस काल के मानव अपने औजार इसी धातु बनाने लगे थे। मानव समाज का विकास के साक्ष्य हड़प्पा, मोहन जोदड़ो और सिंधुघाटी की सभ्यता आदि के खुदाई से मिले प्रमाणो से सिद्ध होता है। याँहा से मानव समाज के विकास की कहानी की कई किताबे पढ़ने को मिल जायेगीं। पहला सत्य युग –इस युग मे भी हिरण्य कश्यप  नामक एक परक्रमी दानव पैदा हुआ। इस दानव ने मानव समाज मे बहुत उतपात रखा था। हिरण्य कश्यप से मानव समाज त्राही- त्राही कर उठी तब पुरा समाज इस राक्षस से मानव जाती के रक्षा के लिए अपने पूर्वज देवो का स्मरण करने लगे उस समय विष्णु देव प्रहलाद के रुप मे जन्म लेकर हिरण्य कश्यप को मार कर, मानव समाज को इस राक्षस से मुक्ती दिलाई।
दूसरा त्रेता युग-  इस युग मे पुरुषो मे उत्तम (अच्छा) पुरोषोत्तम राम का जन्म फैजाबाद जिले मे अयोधा नगरी मे हुआ जो की आज भी हम सब के सामने मौजूद है। इस युग के बाद द्वापर युग आया इन दोनो कालो के घटनाओ एवं मनुष्य समाज की संस्कृति का विवरण रामायण, महाभारत मे विस्तार से उल्लेख किया गया है।
 तिसरा द्वापर युग- इसगुग मे कृष्ण कौरबो पांडबो का जन्म हुआ और महाभारत की रचना हुई।   अन्तिम राजा परीक्षित हुए। एक दिन राजा परिक्षित जंगल मे शिकार करने गये रास्ते मे उन्हे एक श्रृषि ध्यान मुद्र मे तपस्या करते हुए मिले उनके ठिक बगल मे एक मरा हुआ नाग-सर्प पड़ा था। राजा श्रृषि की महानता को नही समझ पाए दुष्टता से उन्होने उस मरे हुए सांप को उठा श्रृषि के गले मे लपेट कर वहाँ से आगे बढ़ गये। तपस्या खत्म होने पर जब श्रृषि की आँख खुली तो मरे हुए सांप को अपने गले से उतार कर फेंक फिर ध्यान लगा कर (अंग्रेजी मे इसे Meditation कहते हैं। ) यह जान गये की यह दुष्टता किसने किया। राजा के इस दुष्टता पर श्रृषि क्रोधित हो उन्हे अभिषाप दे डाला। कि यही सांप आज से पन्द्रह दिनो के अन्दर तुझे डस लेगा। सर्प-दशं से असमय मृत्यु हो जाने के करण  उनका पुत्र जन्मेजय राज गद्दी पर बैठा। जन्मेजय का मंदिर पंजाब प्रदेश मे आज भी मौजूद है। द्वापर काल की समाप्ती का हम सबको पता है। वास्तव मे रामायण और महाभारत दोनो ग्रंथो का इतना अधिक प्रचार-प्रसार हुआ कि हमारे समाज के प्रत्येक आदमी के दिलो-दिमाग मे रच बस गया । याहाँ पर इन दोनो पुस्तको का उल्लेख करना मानव संस्कृति के विकास की कहानी का क्रम बनाए रखने के लिए किया। पृथ्वी पर अब तक सैकड़ो बार रामायण और महाभारत हो चूके हैं। 
क्रमश........
      (इस कितब का आधार 1- भारत के प्राणाचार्य लेखक- आर्चाय विष्णु कर शात्री। 2- प्राचिन भारतिय परंपरा का विकास लेखक- रांगेयराघव 3-प्रचिन भारत लेखक- व्दिजेंद्रनारायण झा 4-प्राचिन भारत की सामाजिक आर्थीक और सांस्कृतिक विकास की पड़ताल। लेखक- व्दिजेंद्रनारायण झा)                                                    

1 comment:

Anonymous said...

What a wonderful piece of writing! Weldone Dada! I really appreciate the kind of research that you have done to bring this facts out of the legends...

Thanks a lot...