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Friday, July 1, 2011

मानव समज और संस्कृति का विकास । संक्षिप्त परिचय का संशोधित रुप भाग- 1


मानव समज और संस्कृति का विकास ।
संक्षिप्त परिचय का संशोधित रुप
भाग- 1

                         दिनांक 1/7/2011
भारतीय समाज की संस्कृति विश्व की सबसे प्राचीनतम् संस्कृति है। मानव संस्कृति का प्रारंभ करोड़ो बर्ष पहले हिमालय के गोद मे शुरु हुआ। स्वर्ग का क्षेत्र हिमालय पर्वत हुआ करता था। जाहाँ मानव की उत्पत्ति हुई । जैसा की हमारे वेद पुराणों मे उल्लीखित ऋचाओं से ज्ञात होता है कि ईश्वर या सर्वशक्तिमान ने सर्वप्रथम एक पुरुष, स्त्री को जन्म दिया। (यह जोड़ा शंकर और पार्वती) इस जोड़े से दो पुत्र उत्पन्न हुए एक सूर और दुसरा असूर कहलाया। यह सूर,असूर दोनो भाई के वंश धिरे-धिरे बढ़ते रहे। सूर सभाव से बड़े ही सौम्य, मन्नशिल, प्रतिभाशालि और उनका आहार सात्विक था। दूसरा पुत्र असूर का स्भाव क्रोधी, उदंन्ड एवं उनका खान-पान मांस, तामसिक भोजन प्रिय थे। कुछ समय पश्चात दोनो भाईयों मे लड़ाई होने लगी। कालान्तर यह लड़ईयाँ युद्ध मे परिवर्ती होता चला गया। एक समय ऐसा आया असूर लोग स्वर्ग मे अत्यन्त उत्याचार करने लगे उनसे स्वर्ग की संस्कृति को खतरा पैदा हो गया तब उनके पर दादा ने देव आदि देव (शिव जी) दोनो भाईयो को अलग करने के लिये उन्हें यह आदेश दिया कि बड़े भाई सूर और उनकी संन्ताने यही स्वर्ग मे रहेगें और असूर एवं उनकी संन्ताने वलूच्य देश (आज कल इसका नाम बलूचिस्तान है।) मे जा के रहे। इस प्रकार दोनो एक दूसरे से दूर रहेंगे तो उनके मध्य युद्ध होने का खतरा नही होगा। (चूंकि शिव दोनो ही भाईयों के पूज्यनिय थे। इसलिए आज भी मक्का मदिना मे शिव लिंग का होना बताया जाता है।)  इस आदि काल के एक युद्ध का वर्णन संक्षेप मे इस प्रकार है। इस काल के विख्यात असूर महिषासूर ने स्वर्ग मे बहुत उत्पात मचा रखा था । इस असूर को युध्द मे मारना अकेले किसी देवता के वश मे नही था। सभी देवताओ ने मिल कर इसका उपाय सोचा कि हम सारे देवता मिल कर उस असूर का बध करें। परन्तु यह एक निकृष्ट कार्य होगा। और यह युद्ध के नियम के विपरित भी यह विचार कर सभी देवता एकत्रित हो इस समस्या का हल ढूँढने के लिए देव आदि देव शंकर के पास गये। सभी देव मिल कर शिव से बोले कि भगवन् आप अकेले ही महिषासूर ( महिष का अर्थ भैंस है, महिषासूर चूंकि भैसे कि सवारी करता था इसलिए उसका नाम महिषासूर पड़ा। ) का संहार कर सकते हैं। शिव जी बोले- मै आप के समाज का प्रथम पुरुष सभी मेरे लिए समान हैं। महिषासूर से युद्ध करते समय क्रोध वश मैने आपने पशुपति अस्त्र का (आज वर्तमान समय के दो परमाणु बम पुरी दुनिया को समाप्त कर सकता है, शिव का एक पशुपति अस्त्र पुरी दुनियाँ को नष्ट कर सकता था।) प्रयोग कर दिया तो संसार की सम्पूर्ण सृष्टि का विनाश हो जायेगा इसलिए यह काम मै नही कर सकता, कोई दूसरा ऊपाय सोचों। सभी देवता ने इस समस्या को हल करने का भार शिव पर ही छोड़ दिया। तब शिव ने यह युक्ति निकाला कि हम सभी का तेज, प्रताप और अस्त्र से लैस एक प्रति मूर्ती बनाकर ही इस असूर का संहार किया जा सकता है। युद्ध करने के लिए किसी को विना कारण ललकारा नही जाता है। इसलिए इस प्रति मूर्ती (दुर्गा) को नारी का रुप दिया गया। क्योकि आदि काल से नारी रुप पुरुष के लिए सदैव आर्कषण का केन्द्र रहा। पुरुष का यह प्रारभ्य प्रकृति की देन है। दुर्गा श्रगांर करके हिमालय के गुफा कंद्राओ के पास जाकर बैठ गईं। जहाँ महीषासूर दुर्गा के रुप यौवन पर मुग्ध हो कर उसकी ओर आक्रर्षित हो दुर्गा के समीप गया और दोनो मे घमासान युद्ध शुरु हुआ। युद्ध करते-करते सात दिन गुजर गये। भुखी-प्यासी दुर्गा अपना होशो-हवास खो बैठी और शरिर काली पड़ जाने के बाद, ( इसीलिए दुर्गा का एक रुप काली एवं दूसरा नाम श्यामा है।) और रोद्र रुप धारण कर रण चंडी बन गई। नर मुंडों को काट-काट कर उसके खून से अपना प्यास बुझाने लगी दुर्गा का यह उन्मादी रुप देखकर सभी देव घबड़ा कर पुनः शंकर के पास पहुचें और उनसे देवी को रोकने के लिए प्रर्थना करने लगे। तब शिव जी दूर्गा को रोकने के लिए युद्ध क्षेत्र के भूमि पर लेट गये दुर्गा लड़ते-लड़ते अचानक लाश समझ कर अपना एक पैर भगवान शंकर पर रख दिया अपराध बोध और लज्जा के कारण उनके मुँह से जिभ बाहर निकल आया कि यह मैने क्या किया। इसीलिए काली मुर्ती मे काली की जीभ बाहर निकली हुई होती है। इस युद्ध मे महिषासूर मारा गया। एक मर्द कि तरह महिषासूर से लड़ने के कारण दुर्गा का एक नाम महीषासूरमर्दिनी पड़ा । ( दुर्गा की प्रतिमा मे दुर्गा के पैरो तले भैंस और असूर की मुर्ती को प्रदर्शित किया जाता है।) आज भी पहाड़ एवं अन्य समुदायों के लोग शक्ति के उपासक दुर्गा की पूजा करते हैं।      
स्वर्ग मे सूरो के संन्तने धिरे-धिरे बढ़ते रहे उधर असूरों के। स्वर्ग में सूरो की संख्या अधिक हो जाने पर वहाँ नियम-कानून बना कर देव समाज को व्यवस्थित किया गया। देवताओं मे से जो भी स्वर्ग का नियम तोड़ता, उसे दंड स्वरुप नर्क मे जा कर निवास करने का आदेश दिया जाता । नर्क का क्षेत्र (नर के न रह पाने वाली जगह) का निर्धारण ऊपर से सुदूर निचे की ओर अर्थात जाहाँ (हिमालय) से गंगा निलकर समतल पर बहती हो। (जहाँ खाने पिने से लेकर जिन्दा रहने के लिए हर पल संघर्ष करना पड़ता था। जैसे अंग्रेजी शासन काल का काला-पानी ) पहाड़ के निवासी आज भी उपर या निचे को जा रहे हैं जैसे शब्दो का प्रयोग करते हैं। स्वर्ग से निकाले गये यह देव और देवी दंड स्वरुप नर्क के निवासी बने और धिरे-धिरे नर्क मे देव और देवीयों के संन्तानो का विकास होता चला गया। इसी काल मे स्वर्गं निवासीयों का दूसरा वर्ग किन्नरियों, नर्तक और नृर्तकिओं का था।उन्हें हिमालय का दूसरा क्षेत्र किनोर (वर्तमान मे हिमांचल प्रदेश )  मे रहने को दिया गया। (बहुत बर्षो तक इस जगह का नाम किन्नरियो का निवास स्थान होने के कारण किन्नर देश के नाम से जाना जाता रहा। वर्तमान मे इसका नाम बदल कर हिमांचल प्रदेश के किनोर जिला हो गया है।) इस प्रकार स्वर्ग समाज को व्यवस्थित किया गया। धिरे-धिरे दंड पाये स्वर्ग के देव और देवीयों ने मनुष्यों के रहने के लिए नरक को भी स्वर्ग जैसा बना डाला। इस काल के मानुष्य अपने जप-तप के वल पर साधु-संन्त ऋषि मुनी बने उन्होने देव आज्ञा से वेद-पुरोणो की रचना की इस समय का मानव अपने पूर्वजो देवो के साथ सिधे संम्पर्ख मे रहें। वेद मानव सभ्यता का सबसे प्रचिन हस्त लिखित दस्तावेजों मे से एक हैं। वेद की 28 हजार पांडुलिपियाँ भारत के पुणे ' भंडारकर ओरिएंटल रिसर्च इंस्टीट्यूट ' में रखी हुई हैं। प्रोफेसर विंटरनिट्ज के अनुसार वैदिक साहित्य का रचनाकाल 2000 से 2500  ईसा पूर्व माना जाता है। वास्तव में वेदों की रचना एक निश्चित काल में नहीं हुआ है वल्कि विद्वानों ने वेदों का रचनाकाल 4500 ई.पू. निर्धारित किया है। अर्थात इसकी रचना क्रमशः होती रही। यह माना जाता है कि सर्व प्रथम वेद को तीन भागों में संकलित कर वांटा गया पहला- ऋग्‍वेद दूसरा-यजुर्वेद तिसरा-सामवेद जि‍से वेदत्रयी भी कहा जाता था। मान्यता के अनुसार वेद का वि‍भाजन राम चंन्द्र के जन्‍म काल से पूर्व ऋषि पुरुवा के समय में हुआ था। बाद में श्रृषि अथर्वा ने किया। वेद वैदिककाल की वाचिक परम्परा की एक अनुपम कृति हैं। विद्वानों द्वारा वेद को संहिता, ब्राह्मण, उपनिषद और आरण्यक चारो को समग्र वेद कहा गया है। इस चारो भागो को सम्मिलित रूप से श्रुति कहा। आरण्यक एवं इस चारों के संयुक्त रुप चार भागों के बाकी ग्रन्थ स्मृति के अंतर्गत आते हैं। वेदो का शब्दिक अर्थ ऋग- स्थिती , यर्जुरुपांतरण, साम – गतिशील एवं अथर्व का अर्थ जड़ से है। ऋक से धर्म, यर्जुः से मोक्ष, साम से काम, अथर्व से अर्थ कहा गया है। इसी के आधार पर धर्मशास्त्र, अर्थशास्त्र, कामशास्त्र और मोक्षशास्त्र की रचना हुई है। ऋग्वेदः- (ऋक) में 10 मंडल और 1,028 ऋचाएं हैं। इस वेद की ऋचाओं मे देव लोक मे स्तुतियाँ और देवताओं की स्थिती का वर्णन किया गया है। यजुर्वेदः- यत् और जु से मिल कर बना है। यजुर्वेद में 1975 मन्त्र और 40 अध्याय हैं। यत् का अर्थ गतिशील और जु का अर्थ आकाश इसके अतिरिक्त कर्म की प्रेरणा प्रदान किया है। इस वेद में अधिकतर यज्ञ के मन्त्र हैं। यज्ञ के अलावा तत्वज्ञान का वर्णन किया गया है। कृष्ण एवं शुक्ल इसकी दो शाखाएँ हैँ। सामवेदः- साम का अर्थ रुपांतरण,उपासना,सौम्यता और संगीत है। इस वेद मे 1824 मंत्र हैँ वस्तुतः इसमे अधिक्तर ऋग्वेद की ऋचाएं होने साथ ही साथ संगीतशास्त्र पर आधारित हैं। अथर्ववेदः- थर्व का मतलब कंपन और अकंपन दोनो है। अथर्ववेद में 20 कांड और 5987 मंत्र हैं। अपने ज्ञान से परिपूर्ण समाज मे उत्तम कार्य करते हुए जो मनुष्य परमात्मा की आराधना में लिप्त रहता है वही मनुष्य अकंपित ज्ञान को प्राप्त कर मोक्ष को धारण करता है। इसमे ऋग्वेद की अनेको ऋचाएं होने के साथ ही साथ रहस्यमय विद्याओं का भी वर्णन है। चारों वेदों का सार उपनिषदें हैं। उपनिषदों का सार 'गीता' है। इस क्रम मे वेद उपनिषद एवं गीता हमारे धर्मग्रंथ हैं। स्मृतियों में वेद वाक्यों को विस्तृत रुप से समझाया और बताया गया है। मनुस्मृति के श्लोक संख्या (।।.6) में कहा गया है कि वेद मानव संस्कृति के सर्वोच्च और प्रथम प्राधिकृत ग्रंथ है। वेद किसी प्रकार के जात-पात, ऊँच-नीच, महिला-पुरुष में भेद नही हैँ। ऋग्वेद में लगभग 411 ऋषियों और 30 महिला ऋषियों के नाम मिलते हैं। ब्राह्मण ग्रंथों में मुख्य रूप से यज्ञों का वर्णन और वेदों के मंत्रों की व्याख्या है। ब्राह्मण मुख्यता तिन हैं, पहला- ऐतरेय, दूसरा-  तैत्तिरीय और तिसरा- शतपथ।
इस प्रकार देव समाज का विस्तार और परिवर्तन होता चला गया। देव समाज हिमालय एवं पृथ्वी से कब समाप्त हुए यह कहाना कठिन है, परन्तु यह अनुमान लगाया जाता है कि अवश्य ही किसी भंयकर प्राकृतिक जलप्लावन ने इस उन्नत समाज का विनाश कर दिया। पुराणों में उल्लेख है कि जलप्रलय के समय ओंकारेश्वर स्थित मार्कंडेय ऋषि का आश्रम तथा हिमालय के कुछ चोटियां इस जलप्लावन से अछूते रहे। कई माहों तक वैवस्वत मनु ( जिन्हे श्रद्धादेव के नाम से जाना जाता है ) द्वारा नाव में ही गुजारने के बाद उनकी नाव गोरी-शंकर शिखर ( एवरेस्ट ) चोटी से नीचे उतरे। हिमालय का क्षेत्र तिब्बत में मनु के वंशजों की धीरे-धीरे जनसंख्या वृद्धि होती रही जलवायु और वातावरण में तेजी से परिवर्तन होने के कारण वैवस्वत मनु की संतानों ने अलग-अलग भूमि की ओर प्रस्थान करना शुरू किया। भूवैज्ञानिक ऐसा मानते हैं कि पहले सभी द्वीप इकट्ठे थे। धरती की घूर्णन गति एवं भू-गर्भीय परिवर्तनो के कारण धरती के द्वीपों के स्थिती परिर्वतन हुए। प्रलय के खत्म होने के बाद बहुत समयान्तराल के बाद धीरे-धीरे समुद्र का जलस्तर घटा मनु की संतति दक्षिणी, पूर्वी और पश्चिमी मैदानो और पहाड़ी प्रदेशों में फैलते चले गए, और अखंड भारत की सम्पूर्ण भूमि को ब्रह्मावर्त, ब्रह्मार्षिदेश, मध्यदेश, आर्यावर्त एवं भारतवर्ष इत्यादी –इत्यादि नाम दिए। मनु की संताने जो यांहा आए वे सभी मनुष्य आर्य कहलाए। आर्य एक गुण वाचक शब्द है इसका अर्थ श्रेष्ठ है। यही आर्य लोग जब यांहा आए तो अपने साथ वेद लेकर आए। तभी से यह धारणा प्रचलित हुई कि देवनगरी से वेद धरती पर उतर आए हैं। स्वर्ग मतलब हिमालय से गंगा को धरती पर उतारा गया। यही लोग धरती पर निवास करने लगे और भांति-भांति के संस्कृति और धर्मो को जन्म दिया। मनुष्यों ने अपने समाज का पुनः निर्माण किया। आदि काल के अन्तिम चरण तक आते-आते मानव जाति छोटे-छोटे समुदाय बनाकर जंगलो मे खर पतवारों से बने घरो मे रहाना सिख गये  थे। इस तरह एक युग खत्म हो दूसरा युग, सत्य युग शुरु हुआ। हमारे पूर्वजों ने युगों को चार भागो मे बाँटा। पहला -सत्य युग । ( इस युग मे सब कुछ सत्य था। झूठ का नामोनिशान नही था। यह सत्य युग कहलाया।) दूसरा - त्रेता युग। (मानव जाती का तिसरा पड़ाव यदि प्ररम्भिक काल को जोड़े तो युग पाँच हो जोयेगें 2-सत्य युग 3-त्रेता युग 4-व्दपर युग 5- कली युग)  होने के तिसरा पड़ाव होने के कारण यह त्रेता कहलाया।)  तिसरा - व्दापर युग। (युग के मध्य का समय होने के कारण व्दापर कहलाया।) चौथा - कली युग। ( यह युग इन तिनो युगो से बड़ा एवं अंतिम युग है। ) इस प्रकार मानव संस्कृति और समाज का एक युग के समाप्ती पर फिर से नवनिर्माण होता रहा। पहला सत्य युग इस इस युग मे हिरण्य कश्यप  नामक एक परक्रमी दानव पैदा हुआ।   इस दानव ने मानव समाज मे बहुत उतपात मचा रखा था। जब हिरण्य कश्यप के अत्याचारो से मानव समाज त्राही-त्राही कर उठी तब पुरा मानव समाज इस राक्षस से मानव जाती के रक्षा के लिए अपने पूर्वज देवो से प्रार्थना व स्मरण करने लगे उस समय विष्णु प्रहलाद के रुप मे जन्म लेकर हिरण्य कश्यप का वद्ध कर मानव समाज को इस राक्षस से मुक्ती दिलाई। पृथ्वी पर अब तक सैकड़ो बार रामायण और महाभारत हो चूके हैं। मानव अपने पूर्वजो से मिली संस्कृति और वस्तुओ को सहेजता चला गया। फिर त्रेता युग मे पुरुषो मे उत्तम (अच्छा) पुरोषोत्तम राम का जन्म फैजाबाद जिले मे अयोधा नगरी मे हुआ जो की आज भी हमारे समक्ष साक्ष्य है। इस युग के बाद द्वापर युग आया इन दोनो कालो के घटनाओ एवं मनुष्य समाज की संस्कृति का विवरण महाभारत मे विस्तार से उल्लेख किया गया है। द्वापर काल के अन्तिम चरण मे राजा परिक्षित हुए। राजा का असमय मृत्यु हो जाने के करण उनका पुत्र जन्मेजय राज गद्दी पर बैठा। जन्मेजय का मंदिर पंजाब प्रदेश मे आज भी मौजूद है। द्वापर काल की समाप्ती का हम सभी को ज्ञात है। वास्तव मे महाभारत और रामायण दोनो ग्रंथो का इतना अधिक प्रचार-प्रसार हुआ कि हमारे समाज के प्रत्येक मनुष्य के दिलो-दिमाग मे रच बस गया। याहाँ पर इन दोनो पुस्तकों का उल्लेख करना मानव संस्कृति के विकास की कहानी का क्रम बनाए रखने के लिए जरुरी था।
आगे अगले अंक मे...............

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